नागरिकता संशोधन विधेयक पर क्या भारतीय मुस्लिम को घबराना चाहिए?
कैब के बारे में सकारात्मक सोच-
नागरिकता संशोधन विधेयक पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिए हैं, यानी अब यह कानून बन चुका है। इस बारे में जो अब तक लिखा जा रहा है, उसे काफी पढ़ा है। क्या इस कानून से देश या किसी भी नागरिक (खासतौर से मुस्लिम) को कोई नुकसान होगा? क्या इस कानून से मुसलमानों को बाहर निकाला जा रहा है?
क्या यह कानून सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो सकता है? ऐसे कई सवाल इन दिनों खूब सुर्खियों में हैं। किसी प्रकार की विशेषज्ञता या विद्वता का दावा नहीं करता। हो सकता है कि भविष्य में हम सबका आकलन गलत सिद्ध हो; यह भी हो सकता है कि हमारा आकलन आधा या पूरा सत्य सिद्ध हो।
प्र.1: क्या केंद्र सरकार द्वारा लाया गया विधेयक राजनीति से प्रेरित है?
उ.1: क्या स्वतंत्र भारत में अब तक लाया गया कोई एक कानून ऐसा है जो राजनीति से प्रेरित न हो? राजनीतिक दल चाहे लाख दावे करें, वे खुद को कितना ही सच्चा क्यों न बताएं, किसी भी विधेयक को लाने के पीछे सियासी फायदा हासिल करने की उनकी मंशा जरूर होती है। अगर किसी विधेयक से सरकारों को नुकसान होता नजर आता है, तो उसे लाया नहीं जाता या दूसरे रास्ते तलाश किए जाते हैं। इस विधेयक से केंद्र सरकार को जरूर फायदा होगा। अब तक बहुसंख्यक समाज का एक बड़ा वर्ग अपनी विचारधारा के कारण प्रधानमंत्री मोदी को पसंद करता रहा है। यह कानून बन जाने से हिंदू समाज में मोदी की लोकप्रियता और बढ़ेगी। साथ ही सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समाज में प्रधानमंत्री मोदी ज्यादा लोकप्रिय होंगे। इसका सीधा मतलब यह भी है कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को नुकसान होने के पूरे योग हैं।
प्र.2: क्या यह कानून सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो सकता है?
उ.2: यह कानून खारिज होगा या नहीं, यह तो न्यायाधीश ही तय करेंगे जो कानून के ज्ञाता हैं। जहां तक इस विधेयक के शब्दों को समझ पाये है, इसमें एक खास बात पर गौर किया जाना चाहिए। विधेयक में 'गैर-मुस्लिम' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। अगर किया जाता तो यह सीधे-सीधे मुस्लिम विरोधी विधेयक साबित हो जाता। अब इसे आप मोदी सरकार के कानून विशेषज्ञों की समझदारी कहें, सूझबूझ कहें या कुछ और.. उन्होंने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक आधार पर उत्पीड़न का सामना करने वाले 'अल्पसंख्यकों' का उल्लेख किया है, जिनमें हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी आते हैं। इस तरह शब्दों के इस्तेमाल से यह विधेयक 'मुस्लिम विरोधी' न होकर उक्त तीनों देशों के 'अल्पसंख्यकों की चिंता' करने वाला अधिक प्रतीत होता है।
अब सवाल आता है, 'मुसलमानों को इसमें क्यों शामिल नहीं किया?' इसके पीछे कई तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी सरकार की ओर से अदालत में इस बात पर खासतौर से जोर दिया जाएगा कि यह विधेयक सिर्फ उक्त तीन देशों के अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए लाया गया है। अल्पसंख्यकों के हितों की बात करने का यह मतलब नहीं कि उससे बहुसंख्यकों (यहां मुसलमान) को नुकसान पहुंचाया जाएगा। भारत में मुसलमान, सिख, जैन, ईसाई आदि अल्पसंख्यक हैं और उनके लिए कई सरकारी योजनाएं जारी हैं, जिनका फायदा किसी बहुसंख्यक हिंदू को नहीं मिल सकता। तो क्या ये योजनाएं बहुसंख्यक समाज को नुकसान पहुंचाने के लिए शुरू की गई हैं? जवाब है- नहीं।
चूंकि इन तीनों देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं और वहां का राज्य धर्म इस्लाम है। ऐसे में इस कानून की परिधि में मुसलमान नहीं आते हैं। लेकिन रुकिए, बात अभी पूरी नहीं हुई। भारत का संविधान इन तीनों देशों के किसी भी मुसलमान को नागरिकता के लिए आवेदन करने से मना नहीं करता है और इस विधेयक में भी ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे यह साबित होता हो कि मुसलमानों को नागरिकता लेने से रोका जा रहा है। उनके प्रार्थना पत्र पर भी विचार किया जाएगा। पिछले कुछ वर्षों में ही 566 बाहरी ( पाकिस्तान,अफगानिस्तान , बांग्लादेश) नागरिको को विभिन्न आधार पर भारत की नागरिकता दी गई है। इस तरह इन तीन देशों में बहुसंख्यक मुसलमानों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करने का दरवाजा बंद नहीं किया गया है। अत: नागरिकता देने के मामले में 'मुसलमानों से भेदभाव का आरोप' यहां खारिज हो जाता है। कुल मिलाकर आकलन यह है कि सुप्रीम कोर्ट से इस कानून के रद्द होने की संभावना बहुत कम है।
प्र.3: क्या भारत के किसी भी मुसलमान की नागरिकता, जीवनस्तर या सामाजिक स्थिति पर इस कानून का प्रभाव पड़ेगा?
उ.3: विधेयक में भारत के मुसलमानों और उनके जीवन से जुड़े इन बिंदुओं का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसे में उनकी नागरिकता, जीवनस्तर और सामाजिक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। वे भारत के नागरिक रहेंगे।
प्र.4: इस कानून पर विचार क्या हैं?
उ.4: स्पष्ट मत है कि देश में अपने संसाधनों को ध्यान में रखते हुए ऐसे लोगों को शरण और नागरिकता दी जानी चाहिए जो सताए हुए हैं और जिन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म या पेशे से जुड़ा हो। अक्सर देखने में आता है कि इन देशों में सेकुलर लेखकों और पत्रकारों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इन लोगों को देश की नागरिकता देने में नरमी बरती जानी चाहिए। साथ ही इस बात का ध्यान रखा जाए कि यहां आने वाला शख्स भविष्य में हमारे ही देश के लिए कोई खतरा न बन जाए।
प्र.5: इस कानून से जुड़ी चिंता क्या है?
उ.5: इस कानून के प्रभाव क्या होंगे, इस पर हर किसी के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। सबसे पहले अनुरोध है कि भावावेश में आकर सोशल मीडिया पर कोई भी सुनी-सुनाई और झूठी बात न फैलाएं। इस कानून के जरिए किसी को भी देश से निकाला नहीं जा रहा, लेकिन चिंता इसके दूसरे पहलू से जुड़ी है। जबसे यह विधेयक लोकसभा में पारित हुआ, सोशल मीडिया पर हजारों-हजारों की तादाद में लोग टिप्पणियां कर अजीब किस्म की बातें कर रहे हैं। इनमें से एक है 'हिंदू राष्ट्र' घोषित करने की मांग। जो लोग हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं, वे समझ ही नहीं रहे कि क्या कह रहे हैं। उन्हें पहले मुस्लिम राष्ट्रों का हाल-चाल देख लेना चाहिए। कहने को तो दुनिया में 50 से ज्यादा 'मुस्लिम राष्ट्र' हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। आप गौर कीजिए- इन मुस्लिम राष्ट्रों में कितनी शांति है? यहां मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कितनी बेहतर है? कितने मुस्लिम राष्ट्रों में ऐसा लोकतंत्र कायम है जिससे दुनिया प्रेरणा ले? कितने मुस्लिम राष्ट्र ऐसे हैं जिनके विश्वविद्यालय दुनिया के टॉप-10 में शामिल हैं?
थोड़ा कष्ट कीजिए, दिमाग पर जोर लगाइए, हो सके तो गूगल की मदद लीजिए। बताइए, आपका जवाब क्या है? आप पाएंगे कि इस्लाम के नाम पर बने या चलने वाले बहुत कम देश ऐसे हैं जो इन सवालों पर खरे उतरें। वहीं, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और यूरोप के कई देशों में हालात इनसे बहुत-बहुत बेहतर हैं। असल में कोई देश अपनी संस्कृति और धर्म की वजह से बेहतर जगह नहीं बनता। उसे बेहतर बनाते हैं वहां के लोग।
नागरिकता संशोधन विधेयक पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिए हैं, यानी अब यह कानून बन चुका है। इस बारे में जो अब तक लिखा जा रहा है, उसे काफी पढ़ा है। क्या इस कानून से देश या किसी भी नागरिक (खासतौर से मुस्लिम) को कोई नुकसान होगा? क्या इस कानून से मुसलमानों को बाहर निकाला जा रहा है?
क्या यह कानून सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो सकता है? ऐसे कई सवाल इन दिनों खूब सुर्खियों में हैं। किसी प्रकार की विशेषज्ञता या विद्वता का दावा नहीं करता। हो सकता है कि भविष्य में हम सबका आकलन गलत सिद्ध हो; यह भी हो सकता है कि हमारा आकलन आधा या पूरा सत्य सिद्ध हो।
प्र.1: क्या केंद्र सरकार द्वारा लाया गया विधेयक राजनीति से प्रेरित है?
उ.1: क्या स्वतंत्र भारत में अब तक लाया गया कोई एक कानून ऐसा है जो राजनीति से प्रेरित न हो? राजनीतिक दल चाहे लाख दावे करें, वे खुद को कितना ही सच्चा क्यों न बताएं, किसी भी विधेयक को लाने के पीछे सियासी फायदा हासिल करने की उनकी मंशा जरूर होती है। अगर किसी विधेयक से सरकारों को नुकसान होता नजर आता है, तो उसे लाया नहीं जाता या दूसरे रास्ते तलाश किए जाते हैं। इस विधेयक से केंद्र सरकार को जरूर फायदा होगा। अब तक बहुसंख्यक समाज का एक बड़ा वर्ग अपनी विचारधारा के कारण प्रधानमंत्री मोदी को पसंद करता रहा है। यह कानून बन जाने से हिंदू समाज में मोदी की लोकप्रियता और बढ़ेगी। साथ ही सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समाज में प्रधानमंत्री मोदी ज्यादा लोकप्रिय होंगे। इसका सीधा मतलब यह भी है कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को नुकसान होने के पूरे योग हैं।
प्र.2: क्या यह कानून सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो सकता है?
उ.2: यह कानून खारिज होगा या नहीं, यह तो न्यायाधीश ही तय करेंगे जो कानून के ज्ञाता हैं। जहां तक इस विधेयक के शब्दों को समझ पाये है, इसमें एक खास बात पर गौर किया जाना चाहिए। विधेयक में 'गैर-मुस्लिम' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। अगर किया जाता तो यह सीधे-सीधे मुस्लिम विरोधी विधेयक साबित हो जाता। अब इसे आप मोदी सरकार के कानून विशेषज्ञों की समझदारी कहें, सूझबूझ कहें या कुछ और.. उन्होंने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक आधार पर उत्पीड़न का सामना करने वाले 'अल्पसंख्यकों' का उल्लेख किया है, जिनमें हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी आते हैं। इस तरह शब्दों के इस्तेमाल से यह विधेयक 'मुस्लिम विरोधी' न होकर उक्त तीनों देशों के 'अल्पसंख्यकों की चिंता' करने वाला अधिक प्रतीत होता है।
अब सवाल आता है, 'मुसलमानों को इसमें क्यों शामिल नहीं किया?' इसके पीछे कई तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी सरकार की ओर से अदालत में इस बात पर खासतौर से जोर दिया जाएगा कि यह विधेयक सिर्फ उक्त तीन देशों के अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए लाया गया है। अल्पसंख्यकों के हितों की बात करने का यह मतलब नहीं कि उससे बहुसंख्यकों (यहां मुसलमान) को नुकसान पहुंचाया जाएगा। भारत में मुसलमान, सिख, जैन, ईसाई आदि अल्पसंख्यक हैं और उनके लिए कई सरकारी योजनाएं जारी हैं, जिनका फायदा किसी बहुसंख्यक हिंदू को नहीं मिल सकता। तो क्या ये योजनाएं बहुसंख्यक समाज को नुकसान पहुंचाने के लिए शुरू की गई हैं? जवाब है- नहीं।
चूंकि इन तीनों देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं और वहां का राज्य धर्म इस्लाम है। ऐसे में इस कानून की परिधि में मुसलमान नहीं आते हैं। लेकिन रुकिए, बात अभी पूरी नहीं हुई। भारत का संविधान इन तीनों देशों के किसी भी मुसलमान को नागरिकता के लिए आवेदन करने से मना नहीं करता है और इस विधेयक में भी ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे यह साबित होता हो कि मुसलमानों को नागरिकता लेने से रोका जा रहा है। उनके प्रार्थना पत्र पर भी विचार किया जाएगा। पिछले कुछ वर्षों में ही 566 बाहरी ( पाकिस्तान,अफगानिस्तान , बांग्लादेश) नागरिको को विभिन्न आधार पर भारत की नागरिकता दी गई है। इस तरह इन तीन देशों में बहुसंख्यक मुसलमानों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करने का दरवाजा बंद नहीं किया गया है। अत: नागरिकता देने के मामले में 'मुसलमानों से भेदभाव का आरोप' यहां खारिज हो जाता है। कुल मिलाकर आकलन यह है कि सुप्रीम कोर्ट से इस कानून के रद्द होने की संभावना बहुत कम है।
प्र.3: क्या भारत के किसी भी मुसलमान की नागरिकता, जीवनस्तर या सामाजिक स्थिति पर इस कानून का प्रभाव पड़ेगा?
उ.3: विधेयक में भारत के मुसलमानों और उनके जीवन से जुड़े इन बिंदुओं का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसे में उनकी नागरिकता, जीवनस्तर और सामाजिक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। वे भारत के नागरिक रहेंगे।
प्र.4: इस कानून पर विचार क्या हैं?
उ.4: स्पष्ट मत है कि देश में अपने संसाधनों को ध्यान में रखते हुए ऐसे लोगों को शरण और नागरिकता दी जानी चाहिए जो सताए हुए हैं और जिन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म या पेशे से जुड़ा हो। अक्सर देखने में आता है कि इन देशों में सेकुलर लेखकों और पत्रकारों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इन लोगों को देश की नागरिकता देने में नरमी बरती जानी चाहिए। साथ ही इस बात का ध्यान रखा जाए कि यहां आने वाला शख्स भविष्य में हमारे ही देश के लिए कोई खतरा न बन जाए।
प्र.5: इस कानून से जुड़ी चिंता क्या है?
उ.5: इस कानून के प्रभाव क्या होंगे, इस पर हर किसी के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। सबसे पहले अनुरोध है कि भावावेश में आकर सोशल मीडिया पर कोई भी सुनी-सुनाई और झूठी बात न फैलाएं। इस कानून के जरिए किसी को भी देश से निकाला नहीं जा रहा, लेकिन चिंता इसके दूसरे पहलू से जुड़ी है। जबसे यह विधेयक लोकसभा में पारित हुआ, सोशल मीडिया पर हजारों-हजारों की तादाद में लोग टिप्पणियां कर अजीब किस्म की बातें कर रहे हैं। इनमें से एक है 'हिंदू राष्ट्र' घोषित करने की मांग। जो लोग हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं, वे समझ ही नहीं रहे कि क्या कह रहे हैं। उन्हें पहले मुस्लिम राष्ट्रों का हाल-चाल देख लेना चाहिए। कहने को तो दुनिया में 50 से ज्यादा 'मुस्लिम राष्ट्र' हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। आप गौर कीजिए- इन मुस्लिम राष्ट्रों में कितनी शांति है? यहां मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कितनी बेहतर है? कितने मुस्लिम राष्ट्रों में ऐसा लोकतंत्र कायम है जिससे दुनिया प्रेरणा ले? कितने मुस्लिम राष्ट्र ऐसे हैं जिनके विश्वविद्यालय दुनिया के टॉप-10 में शामिल हैं?
थोड़ा कष्ट कीजिए, दिमाग पर जोर लगाइए, हो सके तो गूगल की मदद लीजिए। बताइए, आपका जवाब क्या है? आप पाएंगे कि इस्लाम के नाम पर बने या चलने वाले बहुत कम देश ऐसे हैं जो इन सवालों पर खरे उतरें। वहीं, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और यूरोप के कई देशों में हालात इनसे बहुत-बहुत बेहतर हैं। असल में कोई देश अपनी संस्कृति और धर्म की वजह से बेहतर जगह नहीं बनता। उसे बेहतर बनाते हैं वहां के लोग।
नहीं चाहेंगे कि मेरा देश किसी भी धार्मिक पुस्तक से चलाया जाए और बाद में हमें ऐसे दिन देखने पड़ें। धार्मिक पुस्तकों की जगह हमारे दिलों में होनी चाहिए और हमे उनका पूरा सम्मान करते रहना चाहिए। लेकिन देश के सिंहासन पर कानून ही विराजमान होना चाहिए जो सेकुलर हो। सेकुलरिज्म से तात्पर्य हर धर्म का सम्मान करने से है। अगर कोई शख्स धर्म के नाम पर हुड़दंग मचाता है तो उसके साथ पूरी सख्ती बरती जानी चाहिए। धर्म का पालन अच्छी बात है, पर धार्मिक राज्य की मनमोहक कल्पनाओं से पेट नहीं भरता और बहुत जल्द उससे मोहभंग हो जाता है। यह बात कई बार साबित हो चुकी है लेकिन लोग सबक लेने को तैयार नहीं हैं।
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